


सनातन धर्म की परंपराएं केवल धार्मिक रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये मानव जीवन को प्रकृति, ब्रह्मांड और आत्मा से जोड़ने वाले आध्यात्मिक सूत्रों का सजीव प्रतीक हैं। इन्हीं में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आध्यात्मिक रूप से उन्नत अवधारणा है – चातुर्मास, जिसे सनातन धर्म में आत्मशुद्धि, साधना और ब्रह्मचर्य का स्वर्णकाल माना गया है।
चातुर्मास: ऋतु परिवर्तन और साधना का कालखंड
चातुर्मास, अर्थात् चार मास – आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक का यह कालखंड वर्षा ऋतु के दौरान आता है। इस समय प्रकृति अपने सबसे बड़े रूपांतरण से गुजरती है। नदी-नाले, वनों और भूमि का स्वरूप बदलता है; ऐसे में सनातन परंपरा अनुसार यह समय बाह्य यात्रा, भोग-विलास और असंयम से दूर रहकर आत्मचिंतन, ध्यान, व्रत और साधना में लीन होने का होता है।
सनातन परंपरा में चातुर्मास का महत्व
सनातन धर्म के अनुसार चातुर्मास में भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं। इस अवधि में मानव को भी अपने आंतरिक अव्यवस्थाओं को शांत कर, आत्मा की यात्रा पर निकलना चाहिए। ऋषियों-मुनियों द्वारा हजारों वर्षों से यह काल उपवास, संयम, स्वाध्याय, जप-तप और ब्रह्मचर्य के पालन हेतु निर्धारित किया गया है।
इसी कारण कई संन्यासी इस काल में एक ही स्थान पर निवास करते हैं, गृहस्थ साधक व्रत, नियमित जप और विशेष अनुष्ठान करते हैं तथा शास्त्रों का पठन-पाठन करते हैं। यह एक आध्यात्मिक तपस्या की ऋतु है, जो शरीर और मन दोनों को शुद्ध करती है।
व्यावहारिक और वैज्ञानिक पक्ष
आयुर्वेद के अनुसार, वर्षा ऋतु में पाचन शक्ति कमजोर रहती है। अतः सात्त्विक भोजन, उपवास और दिनचर्या में अनुशासन न केवल आध्यात्मिक लाभ देता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत उपयोगी होता है। चातुर्मास में लहसुन-प्याज, मांसाहार, मद्यपान, गहरी तली चीजें आदि का त्याग करने की परंपरा शरीर को हल्का और शुद्ध बनाती है।
आध्यात्मिक लाभ और मनोवैज्ञानिक प्रभाव
चातुर्मास का पालन करने वाले साधकों को आत्मसंयम की शक्ति प्राप्त होती है। नियमित जप, पाठ, ध्यान और ब्रह्ममुहूर्त में जागरण से चेतना का स्तर ऊँचा होता है। यह काल अज्ञान, आलस्य और तमोगुण से लड़कर सतोगुण की ओर अग्रसर होने का अवसर देता है। चित्त निर्मल होता है और जीवन में प्रभु के प्रति समर्पण भाव उत्पन्न होता है।